भारत ने वापस भेजे 150 पाक 'आतंकी'
नई दिल्ली । देश की राजधानी नई दिल्ली पाकिस्तान को यह सबूत देकर घेरने की
तैयारी कर रहा है कि पिछले दिनों पकड़े गए आतंकवादी नावेद को पाकिस्तान की
एक कैंप में लश्कर द्वारा प्रशिक्षण दिया गया। इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक
खबर में अखबार ने अपने सूत्रों के हवाले से बताया है कि नावेद से
मिलती-जुलती परिस्थितियों में 150 से भी ज्यादा पाकिस्तानी नागरिकों को
पहले भी भारत ने पकड़ा था।
इनमें से 2 चित्तीसिंहपुरा में साल 2000 हुए हत्याकांड में संदेही थे। इन
सभी संदेहियों को चुपचाप पाकिस्तान वापस भेज दिया गया। पुलिस और जांच
एजेंसियां उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों को या तो साबित नहीं कर पाई, और कई
मामलों में पकड़े गए संदेही छोटी वारदातों में शामिल पाए गए। इस आधार पर
पुलिस और एजेंसियां उन्हें हिरासत में रखने में सफल नहीं हो सकीं। अगस्त की
शुरुआत में नई दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर की जेलों में बंद 8 जेहादियों को
पाकिस्तान को वापस सौंप दिया।
इनमें कराची का रहने वाला तनवीर अहमद तनावली भी शामिल है जिसे नवंबर 2009
में सीमा रेखा के अंदर घुसपैठ करने की कोशिश करते हुए पकड़ा गया था। उसे 6
साल जेल और 1,000 जुर्माना की सजा सुनाई गई थी।
छोड़े गए जेहादियों में एक अन्य कैदी फखरुज्जमान खोक्कर
भी शामिल है। खोक्कर को साल 2008 में श्रीनगर से गिरफ्तार किया गया था।
उसके पास के एके 47 राइफल, पिस्तौल और हथगोले बरामद किए गए थे। 4 साल
भारतीय जेल में कैद रहने के बाद उसे भी पाकिस्तान भेज दिया गया।
यह सभी प्रत्यार्पण कैदियों के पिछले अपराध का सार्वजनिक तौर पर खुलासा किए
बिना किए गए। इसकी शुरुआत साल 2004 में हुई। पीएम अटल बिहारी वाजपेयी और
पाकिस्तान के सैनिक शासक जनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा शुरू किए गए भारत-पाक
संबंधों में शांति और सहजता के लिहाज से कैदियों के प्रत्यार्पण की कवायद
शुरू हुई। संबंधों में सामन्यता लाने की यह कोशिश दोनों देशों के संबंधों
में 2001-2002 के दौरान आई कड़वाहट के बाद शुरू हुई। संसद पर हमले की घटना
के बाद दोनों देशों में युद्ध जैसी स्थिति बन गई थी। दोनों देशों के बीच
शुरू किए गए शांति प्रयासों का ही नतीजा था कि जम्मू-कश्मीर में लगभग 10
साल तक हिंसा की वारदातों में बहुत तेजी से गिरावट आई।
कागजातों से पता चलता है कि कैदियों के प्रत्यार्पण के इस सिलसिले में
मुहम्मद सपहैल मलिक और वसीम अहमद भी पाकिस्तान वापस भेजे गए। संदेह था कि
दोनों दक्षिणी कश्मीर के चित्तिसिंहपुरा में साल 2000 में हुए 36 सिक्खों
की हत्या में शामिल थे। इन्हें आरोपों से बरी कर दिया गया क्योंकि गवाहों
ने इनकी शिनाख्त नहीं कर सके। कमांडर नसरुल्लाह मंसूर लंगरियाल, जिसने
हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी नाम के जेहादी संगठन की नींव रखी थी, पर आरोप था
कि उसने और उसके संगठन ने दर्जर भर आतंकी वारदातों को अंजाम दिया है।
सबूतों के अभाव में उसपर भी कभी हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जा सका। 2011
में उसे गुजरांवाला स्थित उसके घर वापस भेज दिया गया।
साल 2015 में अब तक 9 कथित आतंकियों और उनके साथ 13 अन्य जिनपर पर्याप्त
कागजातों के बिना सीमा रेखा पार करने का आरोप था को जम्मू-कश्मीर की जेलों
से रिहा कर पाकिस्तान में प्रत्यर्पित कर दिया गया है।
दर्जनों मछुवारों को
भी इसी तरह पाकिस्तान वापस भेज दिया गया है। इन सभी कथित आतंकियों को जेल
में बंद किए जाने के कुछ ही साल के अंदर पाकिस्तान वापस भेज दिया गया।
इनमें से कई के ऊपर गंभीर आपराधिक आरोप थे। इंडियन एक्सप्रेस द्वारा की गई
जांच और प्राप्त कागजातों से यह साबित होता है कि 23 में से 16 कथित
आतंकियों को हथियार और गोला-बारूद के साथ गिरफ्तार किया गया था। इनमें से
केवल 3 के ही खिलाफ हत्या की कोशिश और एक पर हत्या का मुकदमा चलाया गया।
23 में से केवल 3 ही ऐसे कैदी थे जिन्होंने जेल में 14 साल से ज्यादा का
समय बिताया। हत्या के मामलों में अक्सर ही 14 साल जेल की सजा सुनाई जाती
है। इस्लामाबाद में 6 जनवरी 2004 को हुए सार्क देशों के सम्मेलन में जनरल
मुशर्रफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को भरोसा दिलाया, 'मैं पाकिस्तान
के नियंत्रण में शामिल किसी भी जगह को किसी भी तरह से आतंकवाद में शामिल
होने या इसमें मदद करने की इजाजत नहीं दूंगा।' इस बयान के बाद दोनों देशों
के गुप्त वार्ताकारों ने कई दौर की बातचीत भी की।
इसमें से कम-से-कम एक बातचीत में रॉ प्रमुख सी.डी.सहाय और पाकिस्तान खुफिया
एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एहसान-उल-हक भी शामिल हुए थे।
उक्त बयान से पहले पाकिस्तान अक्सर ही आतंकी आरोपों में पकड़े गए कैदियों
को वापस लेने से इनकार कर देता था। पाकिस्तान दावा करता था कि कैदी उसके
नागरिक नहीं हैं। भारत भी बहुत कम ही कथित आतंकियों की गिरफ्तारी के विषय
में पाकिस्तान को सूचना देता था। ऐसे माहौल में 2004 में शुरू हुआ
प्रत्यर्पण कार्यक्रम बेहद महत्वपूर्ण था। इन आरोपियों के कथित तौर पर
आतंकी वारदातों में शामिल होने के कारण पाकिस्तान को सार्वजनिक तौर पर
शर्मसार होने से बचाने के लिए भारत ज्यादातर ऐसे प्रत्यर्पण लोगों की
जानकारी में लाए बिना करता था।
भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख सहाय ने इंडियन एक्सप्रेस को
बताया, 'मुझे व्यक्तिगत तौर पर जानकारी नहीं है कि कैदियों के प्रत्यर्पण
का फैसला किस आधार पर और क्यों लिया गया। यह सच है कि 6 जनवरी को मुशर्रफ
द्वारा दिया गया बयान पाकिस्तान की ओर से दिया गया पहला ठोस वादा था जिसमें
पाकिस्तान ने भरोसा दिलाया था कि वह अपनी जमीन को भारत के खिलाफ आतंकी
वारदातों में इस्तेमाल नहीं होने देगा। पहली बार पाकिस्तान ने माना था कि
उसकी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादी भारत विरोधी कार्रवाईयों के लिए कर रहे
हैं। ऐसे में कैदियों को वापस लेने का फैसला इस लिहाज से भी अहम था कि
पाकिस्तान उन्हें अपना नागरिक मान रहा था।
पाकिस्तान काफी पहले से दावा
करता आया था कि कश्मीर में आतंकवाद असल में वहां के लोगों की भारत से आजाद
होने की कोशिश है।'
भारत-पाकिस्तान के बीच इस समझौते से ऐसे कई पाकिस्तानी नागरिक जिन्हें
मामूली अपराधों के लिए पकड़ा गया था अपने देश वापस लौट सके। साल 2004 से
अबतक, केवल जम्मू-कश्मीर से ही 168 ऐसे पाकिस्तानी नागरिकों को पाकिस्तान
वापस भेजा जा चुका है जिनके अपराध आतंकी गतिविधियों से जुड़े हुए नहीं थे।
उनके द्वारा किए गए अपराधों में अपने परिवार से मिलने के लिए सीमा पार करना
या फिर तस्करी शामिल हैं। हालांकि इसी अवधि के दौरान राज्य की विभिन्न
जेलों से ऐसे 137 पाकिस्तानी नागरिकों को भी रिहा किया गया जिनपर आतंकी
वारदातों में शामिल होने का आरोप था।
दस्तावेजों के मुताबिक, ना तो राज्य सरकार और ना ही केंद्र की यूपीए सरकार
ने ही इन मामलों में पाकिस्तान से सबूत मांगने की कोशिश की। हालांकि दोनों
देशों ने साल 2006 में आतंकवाद से लड़ने के लिए एक साझा मशीनरी विकसित
किया था, लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि इस मशीनरी ने आरोपियों के खिलाफ सबूत
इकट्ठा करने के लिए पड़ोसी देश पर दबाव नहीं बनाया। अगर ऐसा किया जाता तो
संभव है कि सबूत ना होने के आधार पर जिन पाकिस्तानी नागरिकों को रिहा कर
उनके देश वापस भेजा गया, उनपर सबूत जमा कर मुकदमा चलाया जाता।
राजा किफयात
अली को जून 2010 में कथित तौर पर हथियार से भरे एक बैग के साथ पकड़ा गया
था। उसे अगले ही साल पाकिस्तान वापस भेज दिया गया।
अब्दुल हाइ मलिक को 1996 में श्रीनगर में एक नागरिक की हत्या करने का
प्रयास करने के आरोप में पकड़ा गया था। वह 2013 तक जेल में रहा और उसके बाद
उसे प्रत्यर्पित कर दिया गया। उसे भारत में गैरकानूनी तरीके से घुसने के
आरोप में केवल 2 साल जेल की सजा दी गई। शाहनवाज मलिक को सितंबर 1998 में
सीमा रेखा के पास हंदवारा से भारतीय सेना के साथ हुए एक एनकाउंटर के बाद
पकड़ा गया। 10 साल जेल में रखने के बाद उसे पाकिस्तान भेज दिया गया।
चित्तिसिंहपुरा हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने जिन आरोपियों के बरी कर
दिया था उनका अपराध साबित करना क्यों मुश्किल हुआ यह बात बेहद दिलचस्प है।
नानक सिंह और गुरुमुख सिंह ने कहा कि जह हत्याएं हुईं तह इतना अंधेरा था कि
कुछ भी देख पाना मुश्किल हो रहा था। राउफ अहमद ऋषि नाम के एक अन्य गवाह ने
कहा कि जिन लोगों ने हत्याएं कीं उनमें से कुछ की दाढ़ी बड़ी थी, जबकि कुछ
की दाढ़ियां छोटी थीं। राज्य पुलिस के पास फॉरेंसिक सुविधा मुहैया ना होने
के कारण घटनास्थल से फॉरेंसिक साक्ष्य भी जमा नहीं किए जा सके। यहां तक कि
लश्कर के कथित आतंकी मलिक ने जेल में बंद होने के दौरान न्यू यॉर्क टाइम्स
को एक साक्षात्कार दिया था। उसमें उसने ना केवल अपना गुनाह कबूल किया,
बल्कि यह भी माना कि पाकिस्तान में रहने वाले उसके रिश्तेदार लश्कर के
समर्थक थे। मलिक के इस कबूलनामे को सबूत के तौर पर वैध नहीं माना गया।